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ह॒त वृ॒त्रं सु॑दानव॒ इन्द्रे॑ण॒ सह॑सा यु॒जा। मा नो॑ दुः॒शंस॑ ईशत॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hata vṛtraṁ sudānava indreṇa sahasā yujā | mā no duḥśaṁsa īśata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ह॒त। वृ॒त्रम्। सु॒ऽदा॒न॒व॒। इन्द्रे॑ण। सह॑सा। यु॒जा। मा। नः॒। दुः॒ऽशंसः॑। ई॒श॒त॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:23» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् लोगो ! आप जो (सुदानवः) उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराने (सहसा) बल और (युजा) अपने आनुषङ्गी (इन्द्रेण) सूर्य्य वा बिजुली के साथी होकर (वृत्रम्) मेघ को (हत) छिन्न-भिन्न करते हैं, उनसे (नः) हम लोगों के (दुःशंसः) दुःख करानेवाले (मा) (ईशत) कभी मत हूजिये॥९॥
भावार्थभाषाः - हम लोग ठीक पुरुषार्थ और ईश्वर की उपासना करके विद्वानों की प्रार्थना करते हैं कि जिससे हम लोगों को जो पवन, सूर्य्य की किरण वा बिजुली के साथ मेघमण्डल में रहनेवाले जल को छिन्न-भिन्न और वर्षा करके और फिर पृथिवी से जलसमूह को उठाकर ऊपर को प्राप्त करते हैं, उनकी विद्या मनुष्यों को प्रयत्न से अवश्य जाननी चाहिये॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे विद्वांसो यूयं ये सुदानवो वायवः सहसा बलेन युजेन्द्रेण संयुक्ता सन्तो वृत्रं हत घ्नन्ति, तैर्नोऽस्मान् दुःशंसो मेशत दुःखकारिणः कदापि मा भवत॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हत) घ्नन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (वृत्रम्) मेघम् (सुदानवः) शोभनं दानं येभ्यो मरुद्भ्यस्ते। अत्र दाभाभ्यां नुः। (उणा०३.३१) अनेन नुः प्रत्ययः। (इन्द्रेण) सूर्य्येण विद्युता वा (सहसा) बलेन। सह इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (युजा) यो युनक्ति मुहूर्त्तादिकालावयवपदार्थैः सह तेन संयुक्ताः सन्तः (मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (दुःशंसः) दुःखेन शंसितुं योग्यास्तान् (ईशत) समर्थयत। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥९॥
भावार्थभाषाः - वयं यथावत्पुरुषार्थं कृत्वेश्वरमुपास्याचार्य्यान् प्रार्थयामो ये वायवः सूर्य्यस्य किरणैर्वा विद्युता सह मेघमण्डलस्थं जलं छित्त्वा निपात्य पुनः पृथिव्या सकाशादुत्थाप्योपरि नयन्ति, तद्विद्या मनुष्यैः प्रयत्नेन विज्ञातव्येति॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - आम्ही योग्य पुरुषार्थाने ईश्वराची उपासना करून विद्वानांना प्रार्थना करतो की जे वायू, सूर्याचे किरण, विद्युतबरोबर मेघमंडळात राहणाऱ्या जलाला छिन्न भिन्न करून वृष्टी करवून पुन्हा पृथ्वीवरून जल वर नेतात त्यांची विद्या सर्व माणसांनी अवश्य जाणली पाहिजे. ॥ ९ ॥